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… तो २२ साल के अंतराल के बाद आखिरकार अयोध्या में भाजपा को वनवास मिल गया। यह वनवास किसी राजा के रानी को दिए हुए दो वर से नहीं बल्कि जनता ने दिया है। सन वर्ष १९९१ से विधायक चुने जाते रहे भाजपा के लल्लू सिंह इस बार चुनाव हार गए। इस हार के अपने मायने भी हैं, हालांकि बीते पांच चुनाव में उनकी जीत में भाजपा का कम और उनकी व्यक्तिगत छवि ज्यादा काम आती थी। सहजता, सरलता और मिलनसार स्वभाव लल्लू सिंह की खास पहचान है। खैर उनकी हार से एक सवाल रह-रह कर कौंध रहा है कि क्या यह हार राजनीति के एक युग का अवसान है? क्या भाजपा के हिंदुत्व से जनता का भरोसा खत्म हो गया है? क्या भाजपा की जनता से भावनात्मक रिश्ते की सबसे मजबूत कड़ी टूट गई है? भावना के जिस उभार ने देश की राजनीति की दिशा मो़ड़ दी थी क्या अब उसका वजूद खतरे में पड़ गया है? दूसरे संदर्भ में कहें तो क्या भाजपा का मंदिर कार्ड फेल हो गया है? भाजपा ने इस बार भी अपने घोषणापत्र में मंदिर की बात की थी और सभाओं में भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने भी जमकर मंदिर राग अलापा था, लेकिन अयोध्या तो अयोध्या पूरे प्रदेश से भाजपा का सूपड़ा सा साफ हो गया। न केवल सीटें घटी बल्कि परंपरागत वोट पर भी चोट लगी। यह भी कहना गलत न होगा कि लल्लू सिंह की हार ने भाजपा की जड़ पर ही हमला कर दिया है।
राम लहर पर सवार होकर सन १९९१ में लल्लू सिंह पहली बार अयोध्या से भाजपा के विधायक बने थे और लगातार पांच चुनाव जीत कर संगठन और संघ परिवार के चहेते विधायकों में शुमार होने के साथ-साथ अयोध्या की सियासी पहचान से बन गए, लेकिन इस चुनाव में न केवल उनका वोट कम हुआ बल्कि हिंदुत्व की सियासी मौजूदगी पर भी सवाल उठने लगे हैं। एेसे भी नहीं कि लल्लू सिंह अयोध्या के विकास में पीछे रहे हों। खूब काम कराने के बावजूद उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा वह भी पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाले महज ३२ साल के तेज नारायण पांडेय पवन से। लल्लू सिंह की हार की कई वजह गिनाई जा रही है और उन्हीं प्रमुख वजहों में एक अयोध्या से एक किन्नर प्रत्याशी का लड़ना भी है। यदि इस हार की तुलना भीष्म पितामह की हार से की जाए तो हालात बिल्कुल वैसे ही हैं। किन्नर उम्मीदवार खुद चुनाव तो नहीं जीत सकीं, लेकिन लल्लू सिंह के वोटों में जमकर सेंधमारी की और परंपराओं में विश्वास रखने वाली आस्थावान जनता ने गुलशन बिंदू को २२ हजार से ज्यादा वोट दे दिए। खैर। सन १९९१ में रामलहर में ही भाजपा ने प्रदेश में सत्ता हासिल की थी और उसके बाद भी जबतब राम का राग भाजपा नेताओं की जुबान पर आता था। राम लहर का असर जैसे-जैसे खत्म होता गया वैसे-वैसे बीजेपी का भी प्रदेश में अवसान होता गया और अब अयोध्या में भी भाजपा को वनवास मिल गया। जानकार यह मानते हैं कि जनता को थोथे वायदों से ज्यादा दिन तक नहीं भटकाया जा सकता है और भाजपा को अपने मूल को छोड़ने की सजा तो जनता देगी ही। अयोध्या, काशी, मथुरा, धारा ३७० व समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर भाजपा का लचर रवैया प्रदेश और देश में चुनाव दर चुनाव भारी पड़ता गया। केंद्र में सत्ता हासिल होने से पहले इन मुद्दों पर भाजपा का रवैया एक बार सत्ता में आने के बाद बदल गया। या कहे कि रवैया और नजरिया दोनों बदला। वर्ष २००४ के लोकसभा चुनाव में मिली पराजय गत लोकसभा चुनाव में और ज्यादा प्रभावी तौर पर सामने आई, लेकिन भाजपा ने सुधार लाने के बजाए इन मुद्दों पर निरंकुशता और बढ़ा दी। इस बार के चुनाव में भाजपा की प्रदेश में जो हालत हुई है वह यह सोचने पर जरुर मजबूर कर देती है कि आखिर वह भाजपा जनता को वैसा विश्वास क्यों नहीं दिला पा रही है जैसा सन १९९१ में था। मै तो यही मानता हूं कि बीजेपी को अब इस पर गहन चिंतन करना होगा और इस मुद्दों पर स्पष्ट, खरा और विश्वास भरा रवैया अपनाना होगा।
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