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चलो अच्छा ही हुआ कि राहुल महाजन की शादी हो गई। भला हो “स्वयंवर” का। रीयालटी शो देखने वालों ने भी लम्बी और राहत की सांस ली। एक बुजुगर्वार मिले तो कहने लगे कि भई अभी तक तो हमने महिलाओं के स्वयंवर की बात ही सुनी थी। एेतिहासिक दस्तावेजों में भी महिलाओं के स्वयंवर का जिक्र मिलता है। फिर राहुल महाजन का स्वयंवर…? मैने जबाव दिया चचा ये २१ सदीं है और जमाना टीआरपी का है, तो स्वयंवर चाहे लड़की का हो या लड़के का क्या फर्क पड़ता है। मेरा जवाब सुन चचा धीरे से मुस्कुराये और कहा हां भई कुछ भी हो सकता है। एक इतिहास (महिला आरक्षण बिल) संसद के उच्च सदन राज्यसभा में बना तो दूसरा टीवी चैनल के रीयालटी शो में। कुछ देर रुक कर चचा ने मशहूर शायर रफीन शादानी की चंद पंक्तियां सुनाई… “आंधी आई बिजली गै, गुस्सा आवा बुद्धि गै औ जब से आवा इलू-इलू, तुलसी कै चौपाई गै”। खैर। चचा से नमस्ते कर मैं आगे बढ़ गया। इस उधेड़बुन के साथ कि चचा ने आखिर बात तो ठीक ही कही। भई कुछ भी हो… किसी लड़के का स्वयंवर? सच तो यह है कि टीवी सीरियल सामाजिक सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं। आज के टीवी सीरियल सामाजिक सरोकारों पर कम और टीआरपी को ध्यान में रखकर ज्यादा बनाये जा रहे हैं। खासकर रीयालटी शो। स्वयंवर और सच का सामना इसके ताजा तरीन उदाहरण हैं। कुछ ही दिन बीते होंगे कि एक टीवी चैनल पर लोगों को पिछला जन्म तक दिखाया जाने लगा था। सीरियल ने कुछ किय हो या नहीं, लेकिन पूर्व जन्म दिखाने वालों का धंधा जरुर चमका दिया। इससे इतर नब्बे का वह दशक याद कीजिये, जब “रामायण”, “महाभारत” और “श्रीकृष्णा” जैसे धारावाहिको ने टीआरपी के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। ये धारावाहिक न केवल शिक्षाप्रद, बल्कि लोगों को परम्पराओं, संस्कृति और जड़ों से जोड़ने के साथ ही इतिहास की भी जानकारी देते थे। उसी दौर के धारावाहिक “मुंगेरी लाल के हसीन सपने” की याद ही गुदगुदाने लगती है। कहीं भी अगर चर्चा सीरियलों की हो रही हो और मुंगेरी लाल का जिक्र न हो एेसा कम ही होता है। नीम का पेड़ का बुधई आज भी लोगों की याददाश्त में समाया हुआ है, लेकिन अब एेसे धारावाहिक कम ही दिखते हैं, जिनके पात्र लम्बे समय तक याद रहें। तीन-चार एपिसोड भी छूट गये तो पात्र का नाम याद करने में वक्त लग जाता है। हाल के दिनों में बालिका बधू की आविका गौर यानी “आनन्दी” को छोड़ दें तो एेसे सीरियल कम हैं, जो लोगों के दिलोंदिमाग पर राज करने वाले हों।
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